कौटिल्य अर्थशास्त्र हिंदी PDF | Kautilya Arthashastra In Hindi Download
कौटिल्य अर्थशास्त्र हिंदी PDF | Kautilya Arthashastra In Hindi Download
आपको बता दें कि, कौटिल्य का अर्थशास्त्र डॉ श्याम शास्त्री द्वारा अनुवाद किया गया एक शास्त्र है, जिसे 1909 में डा. शाम शास्त्री लाया गया था. इसका अनुवाद शासन के हित के राष्ट्र में रखकर किया गया था. यह 15 भागों और 180 उपभागों में विभाजित किया गया है, जिसमें 6000 से अधिक श्लोक शामिल है.
कौटिल्य अर्थशास्त्र
इस पुस्तक की रचना के संबंध में इतिहासकारों के बीच अलग-अलग तरह के मतभेद भी सामने आए हैं. कुछ इतिहासकारों का कहना है कि, यह किसकी रचना चंद्रगुप्त का प्रधानमंत्री ने की थी, जिसका नाम कौटिल्य था और अन्य विद्वानों का कहना है कि, इसकी रचना अत्यंत प्राचीन काल में हुई थी, जिसके संबंध में अधिक जानकारी नहीं है.
यदि इस ग्रंथ की रचना चंद्रगुप्त द्वारा की गयी थी, तो वह चंद्रगुप्त का मंत्री होने के नाते चंद्रगुप्त की व्यवस्था को इस किताब में अवश्य करता, लेकिन कम से कम लेकिन यहां पर ऐसा कुछ नहीं मिलता है इसलिए आज भी विवाद की स्थिति बनी हुई है.
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में अनेक विषयों की चर्चा की गयी है, जिसमे “व्यापार और वाणिज्य, कानून और न्यायालय, नगर-व्यवस्था, सामाजिक रीति-रिवाज, विवाह और तलाक, स्त्रियों के अधिकार, कर और लगान, कृषि, खानों और कारखानों को चलाना, दस्तकारी, मंडियाँ, बागवानी, उद्योग-धंधे, सिंचाई और जलमार्ग, जहाज़ और जहाज़रानी, निगमें, जन-गणना, मत्स्य-उद्योग, कसाई खाने, पासपोर्ट और जेल-सब शामिल हैं।
इसमें विधवा विवाह को मान्यता दी गई है और इसके बारे में कई तरह से बाते की गयी है. विशेष परिस्थितियों में इसमें तलाक को भी उचित बताया गया है.
कौटिल्य अर्थशास्त्र में क्या शामिल है?
विवाह और तलाक
विवाह एक ऐसे रिस्ते का नाम है जिसमें दो परिवारों व दो व्यक्तियों का जीवन आपस में जुड़ता है। विवाह के द्वारा दो व्यक्ति अपनी युवावस्था की अल्हड़ता को छोड़कर दांपत्य जीवन में प्रवेश करते हैं और नई ज़िम्मेदारियों को उठाते हैं। विवाह में जहाँ दो व्यक्तियों के जीवन की डोर आपस में जुड़ जाती है उसी तरह दोनों परिवारों का समन्वय उनको नए रिश्तों में भी बाँधता है जिससे उनके कर्त्तव्य और ज़िम्मेदारियाँ दुगुनी हो जाती हैं। विवाह के पश्चात् एक लड़की एक नए घर में प्रवेश करती है, नए परिवेश में स्वयं को ढ़ालती है व उस परिवार के सदस्यों से नए सम्बन्ध स्थापित करती है। यह सब विवाह में संभव है। इसी तरह से एक लड़के को भी दूसरे परिवार के लिए नए सिरे से शुरूआत करनी होती है। पहले, विवाह में औरतों पर बहुत ज़िम्मेदारियों का दबाव बना रहता था क्योंकि ज़्यादातर औरतें अशिक्षित थीं इसलिए वह घर को संभालती थीं। उनके लिए उनका परिवार, उनके बच्चे, उनका भविष्य ही उनका लक्ष्य तथा उद्देश्य हुआ करता था। वह अपना सारा जीवन इसी में समर्पित कर देती थी क्योंकि भारतीय समाज पुरूष प्रधान समाज रहा है। उसकी स्थिति इसकी उलटी थी बाहर जाकर नौकरी करना व हर महीने अपनी आय से घर का खर्चा चलाना उनका कर्त्तव्य बस यहीं तक निहित था। परन्तु समय के साथ औरतों की स्थिति में भी बदलाव आने लगा। जहाँ घर-परिवार को अपना सर्वस्व सौंपकर वह इसमें आलौकिक सुख मानती थी।
अब शिक्षित होने के कारण उनके उद्देश्य व सुखों में अंतर आना आरंभ हो गया। अब वो पुरूषों के बराबर चलकर उनकी ज़िम्मेदारियों में बराबर का साथ देने लगी इस कारण उनका उद्देश्य उनका करियर हो गया। अब उनके लिए अपनी माताओं की तरह घर-परिवार महत्वपूर्ण नहीं रहा। वह स्वयं के लिए एक नई मंज़िल चुन चुकी थीं इसी कारण समाज में तलाक की प्रवृति आरंभ होने लगी। जहाँ वह पहले पुरूष द्वारा की गई अवहेलना व प्रताड़ना को चुपचाप सहन कर जाती थीं, अब बुलंद आवाज़ में उसका विरोध करने लगी। समय की व्यस्तता ने भी घर पर समय ना देने के कारण समाज में तलाक की प्रवृति पर ज़ोर दिया है। व्यस्तता के कारण आपसी रिश्तों में खटास घुलने लगी है और शिकायतों के दौर बढ़ने लगे। पहले के दौर में तलाक बहुत ही बुरा माना जाता था और मुश्किल से ही लोग इसके लिए तैयार होते थे। परन्तु आज के प्रगतिशील समय में यह आम बात होती जा रही है। पहले तलाक लेने से पहले दस बार सोचा जाता था परन्तु आज छोटी-छोटी बातों में तलाक के लिए तैयार हो जाना विवाह जैसे रिस्ते के लिए बुरा दौर है। समाज में बढ़ती इस कुरीति ने विवाह के प्रति लोगों में भय उत्पन्न कर दिया है। हमें चाहिए कि हम सजग रहकर समान रूप से अपने रिश्तों का निर्वाह करें व तलाक जैसी कुरीति को समाज की जड़ से उखाड़ फेंके। तभी एक उज्जवल भविष्य और सभ्य समाज की ओर बढ़ा जा सकता है।
विधवा विवाह
प्राचीन काल से हमारे समाज में विधवा विवाह को उचित नहीं माना गया है। उस समय के अनुसार एक स्त्री के पति की मृत्यु हो जाने के पश्चात् सादा जीवन व्यतीत करना, उस स्त्री के लिए सही माना जाता था। उसके पति की मृत्यु के पश्यात् या तो उसे सती होना पड़ता था या फिर उसे समाज का परित्याग करना पड़ता था। उनको हरिद्वार या वाराणसी आश्रमों में साध्वी का जीवन व्यतीत करने के लिए छोड़ दिया जाता था। उनको कैसा जीवन जीना चाहिए इसके लिए नियमों की पूरी सूची उन्हें थमा दी जाती थी। उस समय के समाज में विधवाएँ अधिक संख्याओं में होती थीं। इसका मुख्य कारण था- बालावस्था में उनका विवाह जिसके कारण अकस्मात् दुर्घटना या बीमारी से उनके पति की मृत्यु उन्हें बचपन में ही विधवा बना देती थी। बालपन से ही विधवा जीवन जीने के लिए उन्हें झोंक दिया जाता था। समाज में उनकी स्थिति दयनीय बनी हुई थी। उनके उत्थान के लिए कई महापुरूषों ने आगे बढ़कर कार्य किए हैं। यहाँ तक चाणक्य द्वारा रचित “चाणक्य शास्त्र” में भी विधवा विवाह की बात कही गई है। परन्तु राजाराम मोहन राय ने विधवा विवाह के विरुद्ध महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उन्होंने सती प्रथा को रोका और विधवा विवाह पर ज़ोर दिया। इसमें उनका अंग्रेज़ों ने भी साथ दिया और सती प्रथा के उन्मूलन और पुन: विधवा विवाह को मान्यता दी। राजाराम मोहन राय के अथक प्रयास के कारण ही आज समाज में विधवा विवाह को मान्यता प्राप्त है, इसे बुरी नज़रों से नहीं देखा जाता।
आज समाज में पहले की तुलना में विधवाएँ कम ही देखी जाती है। इसका मुख्य कारण समाज का शिक्षित होना है। अब समाज में बाल विवाह देखने को बहुत कम ही मिलते हैं। यह प्रथा किसी गाँव में ही देखने को मिलती है, सरकार द्वारा लड़की व लड़के की उम्र 18 से 19 वर्ष तक रखी गई है। इससे कम उम्र के विवाह को करने पर परिवार वालों को सरकार द्वारा दंडित किया जाता है। समाज का शिक्षित होना जैसे लड़कियों के लिए वरदान सिद्ध हुआ है। अब उनकी स्थिति मज़बूत हुई है, अब वे शिक्षित हैं और उन्हें अपनी स्वेच्छा से विवाह करने का अधिकार प्राप्त है। इन सबके कारण समाज में विधवाओं का स्तर कम हुआ है। यह सही कहा जाता है कि प्रगतिशील समाज सदैव सबके लिए कल्याणकारी होता है। हमें चाहिए हम अपने विचारों को इस प्रगति की गति के साथ मिलाएँ ताकि समाज की स्थिति मज़बूत बन जाए। उन महापुरूषों का भी धन्यवाद करना चाहिए जिनके भरसक प्रयास ने स्त्रियों की दशा सुधारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
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