रस किसे कहते हैं, रस के प्रकार और इसके अंग | Ras kya hai
रस किसे कहते हैं, रस के प्रकार और इसके अंग | Ras kya hai
Ras kya hai: जिस भी किसी चीज पढ़ते हैं या कोई काव्य को पढ़ते है, तो आपके मन में जिस तरह के भाव जागृत होते हैं और जिस अलौकिक आनंद की अनुभूति होती है, उसी भाव को रस कहते हैं। रस’ शब्द रस् धातु और अच् प्रत्यय के मेल से बना है। रस को काव्य की आत्मा कहा गया है। यदि आप किसी साहित्य को पढ़ते सुनते हैं देखते हैं और श्रोता या दर्शक को जिस तरह की अनुभूति होती है। उसे रास में अभिव्यक्त किया गया है। रास कई प्रकार के हो सकते हैं और यह एक स्थाई भाव का सहयोग भी है।
रस किसे कहते है?
रस शब्द धातु और अच् प्रत्यय से बना हुआ है, संस्कृत में रस की उत्पत्ति रस इतिहास इस प्रकार की गई है, अर्थात जिस में स्वाद नहीं हो उसे आनंद की प्राप्ति हो वही रस कहलाता है। रस का शाब्दिक अर्थ है आनंद। काव्य को पढ़ने और सुनने से अथवा चिंतन करने से जिस आनंद का अनुभव होता है उसे ही रस कहा जाता है।
रस की विशेषता
- रास प्रकाश आनंद दाता ज्ञान से भरा हुआ होता है, यह सुखआत्माक और दुखआत्मक दोनों हो सकता है, किंतु जब रस में बदल जाते हैं तब आनंद स्वरूप हो जाते हैं।
- रस का भाव अखंड होता है रस एक अच्छा विकल्प का ज्ञान है ना कि निर्विकल्प अज्ञानता।
- आलौकिक रस न सविकल्पक ज्ञान है, न निर्विकल्पक ज्ञान, अतः अलौकिक है।
रस के बारे में महान कवियों की पंक्तियां
रस के महत्व को बताते हुए आचार्य भरतमुनि ने स्वयं लिखा है-
नहि रसाते कश्चिदर्थः प्रवर्तते।
ऐसा ही विश्वनाथ कविराज ने भी लिखा है
सत्वोद्रेकादखण्ड-स्वप्रकाशानन्द चित्तमयः ।
वेद्यान्तरस्पर्शशून्यो बास्वाद सहोदरः ॥
लोकोत्तरचमत्कार प्राणः कैश्चित्प्रमातृभिः ।
स्वाकारवदभिन्नत्वेनायमास्वाद्यते रसः ॥
उपरोक्त पंक्तियों का अर्थ है कि अन्तःकरण में रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्वगुण के सुन्दर और स्वच्छ प्रकाश से ‘रस’ का साक्षात्कार होता है। (प्रकृति के तीन गुण होते हैं सतोगुण, तमोगुण, रजोगुण जिनकी बात यहाँ की गई है लेकिन तीनों में श्रेष्ठ सतोगुण माना जाता है।) यह रस अखण्ड, अद्वितीय, स्वयंप्रकाश, आनन्दमय और ज्ञान स्वरूप वाला है। इस अनुपम ‘रस’ के साक्षात्कार के समय दूसरे वेद्य विषयों का स्पर्श भी नहीं होता है।
रास के अंग
रस के मुख्य चार अंग होते हैं, जिसमें पहला स्थायीभाव, दूसरा विभाव तीसरा अनुभव और चौथा व्यभिचार अथवा संचारी भाव
स्थायीभाव
सबसे पहले स्थायीभाव रस का आधार होता है। एक रस के मूल में एक स्थाई भाव रहता है, रसों की संख्या भी नौ है, जिन्हें नवरस कहा जाता है ।ऐसा ही भाव का अभिप्राय प्रधान भाव रस की अवस्था तक पहुंचने वाले भाव को प्रधान भाव कहा गया है। स्थाई भाव के कालबेलिया नाटक में शुरुआत किस से अंत तक होता है।
विभाव
विभाव का मतलब है, कारण, जिसकी वजह से या जिन कारणों से सामाजिक के ह्रदय में स्थिति स्थाई भाव विकसित होता ।है उन्हें विवाह कहा जाता है। यह दो तरह का होता है।
आलम्बन विभाव– जिसके कारण आश्रम के हृदय में स्थायी भाव उदबुद्ध होता है। उसे आलम्बन विभाव कहते हैं।
उद्दीपन विभाव– ये आलम्बन विभाव के सहायक एवं अनुवर्ती होते हैं। उद्दीपन के अन्तर्गत आलम्बन की चेष्टाएँ एवं बाह्य वातावरण- दो तत्त्व आते हैं, जो स्थायी भाव को और अधिक उद्दीप्त, प्रबुद्ध एवं उत्तेजित कर देते हैं।
अनुभाव चार प्रकार के होते हैं:
आंगिक (कायिक) – शरीर की चेष्टाओं से प्रकट होते हैं।
वाचिक– वाणी से प्रकट होते हैं।
आहार्य – वेशभूषा, अलंकरण से प्रकट होते हैं।
सात्विक – सत्व के योग से उत्पन्न वे चेष्टाएँ जिन पर हमारा वश नहीं होता सात्विक अनुभाव कही जाती हैं। इनकी संख्या आठ है- स्वेद, कम्प, रोमांच, स्तम्भ, स्वरभंग, अश्रु, वैवर्ण्य, प्रलाप आदि।
अनुभव
तीसरा होता है, अनुभव। यह भाव का बोध कराने वाला कारण होता है, आंशिक रूप से यह ज्ञात होता है कि उसके हृदय में कौन सा भाव उत्पन्न हुआ है, वही अनुभव कहलाता है यह मुख्यता चार प्रकार से परिभाषित किया गया है।
अनुभाव चार प्रकार के होते हैं:
आंगिक (कायिक) – शरीर की चेष्टाओं से प्रकट होते हैं।
वाचिक– वाणी से प्रकट होते हैं।
आहार्य – वेशभूषा, अलंकरण से प्रकट होते हैं।
सात्विक – सत्व के योग से उत्पन्न वे चेष्टाएँ जिन पर हमारा वश नहीं होता सात्विक अनुभाव कही जाती हैं। इनकी संख्या आठ है- स्वेद, कम्प, रोमांच, स्तम्भ, स्वरभंग, अश्रु, वैवर्ण्य, प्रलाप आदि।
संचारीभाव
चौथा होता है संचारी भाव। स्थाई भाव को पुष्ट करने वाले संचारी भाव कहलाते हैं। इसमें सभी र सीमित होते हैं इन्हें व्यभिचारी भाव भी कहा जाता है, जिसकी संख्या 33 मानी गई है।
रसों के प्रकार
रसों के प्रकार निम्न होते है –
श्रृंगार-रस
हास्य रस
करुण रस
वीर रस
भयानक रस
रौद्र रस
वीभत्स रस
अद्भुत रस
शांत रस
वात्सल्य रस
भक्ति रस